कतरा-कतरा देश का क्यूं जल रहा है।
ये किस आग में राष्ट्रवाद पिघल रहा है।।
कहीं भाषा-बोली को लेकर छिड़ा विभाजन राग।
कहीं नौकरियां लगाएं भाईचारे में आग।।
धर्म-जाति की आग में संविधान का हर पन्ना जले।
महंगाई के तेल में कहीं दाल तो कहीं गन्ना तले।।
किसान कहां रहा अब हमारा अन्नदाता।
बनें पूंजीवादा नेता भारत भाग्य विधाता।।
कहां हैं जो करते थे विरोध गांधीवादी।
हर कोने में क्यूं पनपे हैं अब आतंकवादी।।
कलम से सूख गई क्यूं तीखे तेवर की स्याही।
गई पत्रकारिता क्यूं पैसे से बेमेल ब्याही।।
संत लाल बुरा है, दारू के लिए बेटियां बेच रहा।
वो आज महात्मा है, जो इन्सानियत की बोटियां नोच रहा।।
क्या गांधी-नेहरू-शास्त्री-लोहिया-जेपी ने देश को बरगलाया?
या नए नेताओं ने हमें हकीकत का आइना दिखलाया??
भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित
Wednesday, January 20, 2010
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