Wednesday, October 15, 2008

पलट तेरा ध्यान किधर है... सांप्रदायिक सदभाव की दुकान इधर है....

पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के ब्लॉग पर लिखे लेख भले ही न प्रेरित करते हों कुछ लिखने को, किंतु वहां लिखी टिप्पणियां आपको ज़रूर उद्वेलित कर देंगी. हर बार किसी न किसी फंतासी लेखक की दुकान इस हाट में खुलती नज़र आ जाती है. इस बार तो एक फंतासी लेखक ने मीडिया क्लिपिंग्स और कांसपिरेसी थेओरी की बाढ़ ही ला दी है. अब सवाल ये उठता है कि जब दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अलग अलग अख़बारों ने ही इस मुठभेड़ का समय अलग अलग बताया हो, तो आप इन अख़बारों में लिखे फंतासी लेखकों के लेखों पर कितना भरोसा कर सकते हैं?

ज्यादातर मानवाधिकार सम्मेलनों में जाने वाले इन बुद्धजीवीयों के लिए यह मौका हवा पानी बदलने का होता है, ज़रा पूछे कोई इनसे, मानवाधिकार और सांप्रदायिक सदभाव की बातें यह आम आदमी को सुनाने हवाई जहाज़ या रेल के ए. सी. डब्बों में या ए. सी. टैक्सीयों में जाते हैं, उसका खर्च कौन उठाता है? प्रश्न आपकी मंशा पर नही मानवाधिकारवादियों, प्रश्न आपके द्वारा प्रयोग किए जा रहे साधन और उन साधनों को उपलब्ध कराने वालों पर है? तो क्या ऐसे साधनों का उपभोग करने के पश्चात् आपके द्वारा कही गई बातों का कोई मतलब रह जाता है?

अच्छा लगा जानकर कि पी. यु. सी. एल. और पी. यु. डी. आर. का लंगडा, काना और बहरा साम्प्रादायिक सदभाव , पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के ब्लॉग पर भी अपना शो रूम खोलने में सफल हो गया. पहले तो लगा था कि ये सिर्फ़ "बाटला हाउस के इर्द-गिर्द" ही अपनी दुकान चलाएंगे. काश! ये इतनी प्रेस क्लिपिंग्स इस तथ्य की भी एक्त्रतित कर पाते कि कितने बम धमाकों ने इस देश को लहू लुहान किया है?

ए. सी. कमरों में बैठकर कोई भी फैक्ट फाईनडिंग टीम एक अच्छी कांसपिरेसी थेओरी लिख सकती है, वो भी खास तौर से जब अल्प संख्यकों और दलितों का मसीहा बनकर फोरेन फंडिंग लानी हो तो.

मौलिक एलिस इन वंडरलैंड की तरह इन्हे भी फंतासी लिखने में मज़ा आने लगा है, खुदा न खास्ता इन फंतासी लेखकों का कोई अपना मारा जाए इन बम धमाकों में .... क्या ये तब भी बैठकर इस तरह की फंतासी कहानियाँ लिखेंगे और प्रेस क्लिपिंग्स एकत्र करेंगे?

धमाकों में अल्पसंख्यक भी मरे और बहुसंख्यक भी, लेकिन मरहम सिर्फ़ एक समुदाय के ऊपर लगाने की मुहीम क्यों? एनकाउंटर में मरने वाला हर शख्श हिन्दुस्तानी था, एक ने देश के लिए जान दी और दूसरे ने देश से बगावत करके जान दी. बेहतर होता, ये मानवाधिकारवादी, युवाओं को इस राष्ट्र से बगावत करने के लिए उकसाने वाले को बेनकाब करते.

अगर इन तथ्यों को कोई बहुसंख्यक सांप्रदायिक मानसिकता का मानता है, तो कोई परहेज़ नही, कम से कम यहाँ मुखौटा लगाकर लंगडे, काने और बहरे साम्प्रादायिक सदभाव की दुकान तो नही लग रही. जिस दुकान पर सामने तो अपनी खुजली मिटाने के लिए अल्पसंख्यकों के नाम का मरहम बिकता हो और पिछले दरवाज़े से सांप्रदायिक और फासिस्ट ताकतों को ध्रुवीकरण का टानिक दिया जाता हो.