एनडीटीवी ने एक कार्यक्रम दिखाया सपा के 'सेकुलर सिंह'.... अगर कहूँ कि एक अच्छा प्रयास था तो, चाटुकारिता होगी. इस देश की विडम्बना ही रही है कि यहाँ सेकुलरिज्म हमेशा से ही लंगडा, काना और बहरा रहा है. किसी भी सेकुलर सम्मलेन में चले जाएँ अगर हिंदू बहुतायत में हुए तो सम्मलेन के अंत तक मुसलमानों को बाबर और औरंगजेब कि संतान साबित कर दिया जाएगा और अगर इसका उल्टा हुआ तो समझ लीजिये वो सम्मलेन किसी रेलवे प्लेटफॉर्म पर खड़ी "मौलाना एक्सप्रेस" ही होगी.
तो मै बात कर रहा था सपा के 'सेकुलर सिंह' कार्यक्रम की जनाब एंकर महोदय नामी गिरामी चहरे हैं काव्यात्मक लहजे में कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, और जिनकी रिपोर्ट दिखाई गई, वे वरिष्ठ सवांददाता हैं और खालिश शायराना अंदाज़ में खबरें पहुंचाते हैं. दोनों की ही खबरें पहुंचाने की अदा के दर्शक कायल हैं. ये दोनो ही व्यक्ति सेकुलरिज्म के नाम पर हो रहे राजनितिक खेल की बात कर रहे थे, कार्यक्रम के पीछे मंशा अच्छी थी पर ये दोनों अपने मानसिकता से मात खा गए. दोनों ही राजनीतिज्ञों की तरह अलग अलग ध्रुवों पर नज़र आए.
न विश्वास आए तो एक बार पुनः वह कार्यक्रम देखियेगा और पाइयेगा की काव्यात्मक लहजे वाला एंकर उसे 'विवादित ढांचा' कह रहा था और शायर संवाददाता उसे 'मस्जिद' बुला रहा था. बात बहुत छोटी सी है , लेकिन सवाल बहुत बड़ा है. जब हम ख़ुद आपस में सहमत न हों तो दुनिया के सामने दिखावा क्यों? आप कहेंगे अगर दोनों ने अलग अलग कह दिया तो क्या बुरा किया.... बिल्कुल वाजिब है आपका सवाल... लेकिन ६ दिसम्बर १९९२ को जो कुछ हुआ उसके पीछे भी तो यही विवाद था कि वह मन्दिर है या मस्जिद है या सेकुलर तौर पर कहें तो "विवादित ढांचा"....? बेहतर होता कि अगर खबरों में वह घटना .... बम कांडों की तरह सिर्फ़ 'अयोध्या काण्ड' या फ़िर '६ दिसम्बर' या ६/१२ के नाम से बुलाई जाए क्योंकि अंको कि कोई जाति या धर्म नही होता है...
क्या पत्रकारों और राजनीतिज्ञों में कोई फर्क नही रह गया या अभी से राज्य सभा नज़र आने लगी ... जनता यहाँ चैनल पर भी हीरे की चमक की आड़ में बेवकूफ बनेगी और वहां संसद में भी धृतराष्ट्रों के बीच उसी की सेकुलर साडी खींची जायेगी....
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Jab janta ho out of control, mudde ko karke gol, besharmi dikha ke bol khilli udaa ke bol arey bhaiya aal is vel arey Ghonchu aal is vel are...
1 comment:
राजनेताओं के हाथों खेलते है पत्रकार. जैसे बुद्धीजीवियों को सेक्युलर दिखने की ललक है, पत्रकारों को भी है. और यह काम हिन्दूओं को नीचा दिखा कर आसानी से हो सकता है. निष्पक्षता की उम्मीद बेमानी है.
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