Thursday, December 18, 2008

अ से अमर .... अ से अंतुले... भइया देश तोड़ने पर क्यों तुले

अपने फेसबुक के मित्र सूची में एक विदेशी महिला मित्र के प्रोफाइल पर देखा पॉलिटिकल व्युस के आगे लिखा था "डोंट वोट, इट एन्करजेस देम" अब तो लगता है शब्दशः सही लिखा था अंतुले हों, अमर सिंह हों, मुख्तार अब्बास नक़वी हों या फ़िर शकील अहमद या तो खुदा हो गए हैं या अपने आपको को इन्होने भारतीय आवाम का खुदा समझ लिया है. इन सबके बड़के भइया इराक में जो सम्मान पा चुके हैं, शायद उसी सम्मान की दरकार इन बेलगाम ज़बानों को यहाँ भी है. इन सठियाये लोगों की ज़बान से अच्छी तो जूते के अन्दर की जुबां है जो कम से कम पैर को काटने से बचाती है.

शायद मानवाधिकार वादियों को बुरा लगे, पर यह बात साम्प्रदायिकता से हट कर एक धर्म की ठेकेदारी ज्यादा है, अगर आतंक का कोई मज़हब नही है इस बात की सफाई में पूरा का पूरा राजनितिक कुनबा क्यों जुट जाता है? दुनिया जानती है की इस देश में रोज़ कितने लोग झूठे मुकदमो में फंसाए जाते हैं, उन बेगुनाह लोगों में भी तो अल्पसंख्यक और शोषित समाज के लोग होते हैं. उनकी आवाज़ कोई बुलंद नही करता, क्यों? पॉलिटिकल टी.आर.पी. नही नसीब होती ऐसे पचडों में. आतंकवाद का मुद्दा ऐसा है की पूरा देश पहचान जाएगा और अल्पसंख्यक समुदाय भी कि उनके धर्म को बचाने वाला नया ठेकेदार आ गया है, बाज़ार में उनकी बोली लगाने...

ज़रदारी ने मुंबई हमलों से ठीक पहले अपनी बीवी के शब्दों को दोहराया था (पहले उनके रहते भी १०% कमीशन खाते थे, अब उनके भाषण चुरा कर पढ़ते हैं) कि "हर हिन्दुस्तानी में एक पाकिस्तानी रहता है और हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी.

मिस्टर 10 परसेंट आपके यहाँ हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी रहे न रहे, हमारे देश के नेताओं में पाकिस्तानी घुसपैठिया ज़रूर घुसा बैठा है. तभी तो हमारी संसद में बैठे घुसपैठिये आपके यहाँ पल रहे जानवरों को कभी कंधार पिकनिक मानाने के लिए ले जाते हैं और उसके एवज़ में हम भारतीयों को बलि का बकरा बनाते हैं. कभी संसद पर हमला हो जाए तो जेल में आतंकवादियों बैठाकर मुर्ग मुसल्लम खिलवाते हैं यह मुर्ग मुसल्लम का पैसा भी भारतीय जनता अपने खून पसीने के कमाई पर लगने वाले टैक्स से भरती है. हमारे रन बाँकुरे क्या कर सकते हैं यह दुनिया को मालूम है, लेकिन ये हिन्दुस्तानी पाकिस्तानी उन्हें भी नामर्द बनाकर रखते हैं.

हमारे यहाँ के हिन्दुस्तानी पाकिस्तानियों ने सैनिकों के कपड़े और ताबूतों तक सौदा कर लिया... हम दुनिया कि बराबरी करें न करें लेकिन आपके हिंद्स्तानी पाकिस्तानियों कि वजह से (अफगानिस्तान->पाकिस्तान-> ..... ->बांग्लादेश ये बीच कि गायब कड़ी हम ही तो हैं) बहुत जल्द हम सब बराबरी में खड़े होंगे.

समाज सेवकों और राजनीतिज्ञों को लगता है कि देश के पॉलिटिकल सिस्टम को तोड़ने कि साजिश चल रही है. शायद, ये वही समाज सेवक और शास्त्री लोग हैं, जो अब तक इसी भारतीय आवाम को इसलिए गाली देते रहे कि ये आवाम वोट नही देने निकलती .. इस बार जनता भी निकली और इन नेताओं के होश भी निकले. अपने लिए भस्मासुरी स्थिति इन्होने ख़ुद बनाई और अब इसका दोष भी ये जनता के मत्थे फोड़ना चाहते हैं.

मुंबई हमला हुआ, दुनिया में पहली बार एक फिदायीन हमले के दौरान जिंदा आतंकवादी पुलिस के हत्थे चढ़ गया... कितनो का खून बहा एक जिंदा सबूत पकड़ने के लिए. अब तक तो गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाना हुआ कि "अंकल सैम अंकल सैम, पाकिस्तान ने हमारे यहाँ बम फोडे ... आज जब अंकल सैम के यहाँ से राइस चाची और सैम अंकल के दोस्त चचा गार्डन ब्राउन पाकिस्तान को आँख दिखा कर जाते हैं तो अपने किए पानी फेरने के लिए अंतुले जी के अन्दर अमर सिंह कि आत्मा प्रविष्ट हो जाती है.

अब्दुर्र रहमान अंतुले, शकील अहमद और मुख्तार अब्बास नक़वी तीनो के बयान साथ रख देखे जाएँ तो इशारा अपने आप ही कहीं और चला जाता है.... अगर आप तीनो के नाम भी एक साथ लिए जाएँ तो पूरी कॉम पर ऊँगली उठ जायेगी. लेकिन जनता संकुचित सोच वाली नही है जो हर मुद्दे पे अपनी दुकान का शटर उठा दे और बैठ जाए दलाली की दुकान लगा कर.

अधिकारीयों पर तो गाज गिरेगी ही गिरेगी, कुछ सस्पेंड होंगे कुछ हमेशा के लिए नौकरी से हाथ धो बैठेंगे, लेकिन सवाल ये है कि पढ़ाई लिखाई में अपनी आधी ज़िन्दगी गवां कर सरकारी नौकरी पाने वाले की छुट्टी करने में राजनितज्ञ व्यवस्था को ज्यादा समय नही लगेगा, सवाल यह है कि इन तथाकथित जन प्रतिनिधियों की जवाबदारी कौन तय करेगा.

आर आर पाटिल, विलास्राओ देशमुख, शिवराज पाटिल इनके जैसे और भी चुनावों के बाद फ़िर आ जायेंगे, सामने उदाहरण हैं छगन भुजबल, तेलगी ने नाम लिया तो चले गए, राष्ट्रीय आपदा आई तो चले आए मौका ताड़ कर.

Wednesday, December 17, 2008

अ से अमर .... अ से अंतुले... भइया देश तोड़ने पर क्यों तुले

अपने फेसबुक के मित्र सूची में एक विदेशी महिला मित्र के प्रोफाइल पर देखा पॉलिटिकल व्युस के आगे लिखा था "डोंट वोट, इट एन्करजेस देम" अब तो लगता है शब्दशः सही लिखा था अंतुले हों, अमर सिंह हों, मुख्तार अब्बास नक़वी हों या फ़िर शकील अहमद या तो खुदा हो गए हैं या अपने आपको को इन्होने भारतीय आवाम का खुदा समझ लिया है. इन सबके बड़के भइया इराक में जो सम्मान पा चुके हैं, शायद उसी सम्मान की दरकार इन बेलगाम ज़बानों को यहाँ भी है. इन सठियाये लोगों की ज़बान से अच्छी तो जूते के अन्दर की जुबां है जो कम से कम पैर को काटने से बचाती है.
शायद मानवाधिकार वादियों को बुरा लगे, पर यह बात साम्प्रदायिकता से हट कर एक धर्म की ठेकेदारी ज्यादा है, अगर आतंक का कोई मज़हब नही है इस बात की सफाई में पूरा का पूरा राजनितिक कुनबा क्यों जुट जाता है? दुनिया जानती है की इस देश में रोज़ कितने लोग झूठे मुकदमो में फंसाए जाते हैं, उन बेगुनाह लोगों में भी तो अल्पसंख्यक और शोषित समाज के लोग होते हैं. उनकी आवाज़ कोई बुलंद नही करता, क्यों? पॉलिटिकल टी.आर.पी. नही नसीब होती ऐसे पचडों में. आतंकवाद का मुद्दा ऐसा है की पूरा देश पहचान जाएगा और अल्पसंख्यक समुदाय भी कि उनके धर्म को बचाने वाला नया ठेकेदार आ गया है, बाज़ार में उनकी बोली लगाने...

ज़रदारी ने मुंबई हमलों से ठीक पहले अपनी बीवी के शब्दों को दोहराया था (पहले उनके रहते भी १०% कमीशन खाते थे, अब उनके भाषण चुरा कर पढ़ते हैं) कि "हर हिन्दुस्तानी में एक पाकिस्तानी रहता है और हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी.

मिस्टर 10 परसेंट आपके यहाँ हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी रहे न रहे, हमारे देश के नेताओं में पाकिस्तानी घुसपैठिया ज़रूर घुसा बैठा है. तभी तो हमारी संसद में बैठे घुसपैठिये आपके यहाँ पल रहे जानवरों को कभी कंधार पिकनिक मानाने के लिए ले जाते हैं और उसके एवज़ में हम भारतीयों को बलि का बकरा बनाते हैं. कभी संसद पर हमला हो जाए तो जेल में आतंकवादियों बैठाकर मुर्ग मुसल्लम खिलवाते हैं यह मुर्ग मुसल्लम का पैसा भी भारतीय जनता अपने खून पसीने के कमाई पर लगने वाले टैक्स से भरती है. हमारे रन बाँकुरे क्या कर सकते हैं यह दुनिया को मालूम है, लेकिन ये हिन्दुस्तानी पाकिस्तानी उन्हें भी नामर्द बनाकर रखते हैं.

हमारे यहाँ के हिन्दुस्तानी पाकिस्तानियों ने सैनिकों के कपड़े और ताबूतों तक सौदा कर लिया... हम दुनिया कि बराबरी करें न करें लेकिन आपके हिंद्स्तानी पाकिस्तानियों कि वजह से (अफगानिस्तान->पाकिस्तान-> ..... ->बांग्लादेश ये बीच कि गायब कड़ी हम ही तो हैं) बहुत जल्द हम सब बराबरी में खड़े होंगे.
समाज सेवकों और राजनीतिज्ञों को लगता है कि देश के पॉलिटिकल सिस्टम को तोड़ने कि साजिश चल रही है. शायद, ये वही समाज सेवक और शास्त्री लोग हैं, जो अब तक इसी भारतीय आवाम को इसलिए गाली देते रहे कि ये आवाम वोट नही देने निकलती .. इस बार जनता भी निकली और इन नेताओं के होश भी निकले. अपने लिए भस्मासुरी स्थिति इन्होने ख़ुद बनाई और अब इसका दोष भी ये जनता के मत्थे फोड़ना चाहते हैं.
मुंबई हमला हुआ, दुनिया में पहली बार एक फिदायीन हमले के दौरान जिंदा आतंकवादी पुलिस के हत्थे चढ़ गया... कितनो का खून बहा एक जिंदा सबूत पकड़ने के लिए. अब तक तो गला फाड़ फाड़ कर चिल्लान हुआ कि "अंकल सैम अंकल सैम, पाकिस्तान ने हमारे यहाँ बम फोडे ... आज जब अंकल सैम के यहाँ से राइस चाची और सैम अंकल के दोस्त चचा गार्डन ब्राउन पाकिस्तान को आँख दिखा कर जाते हैं तो अपने किए पानी फेरने के लिए अंतुले जी के अन्दर अमर सिंह कि आत्मा प्रविष्ट हो जाती है.
अब्दुर्र रहमान अंतुले, शकील अहमद और मुख्तार अब्बास नक़वी तीनो के बयान साथ रख देखे जाएँ तो इशारा अपने आप ही कहीं और चला जाता है.... अगर आप तीनो के नाम भी एक साथ लिए जाएँ तो पूरी कॉम पर ऊँगली उठ जायेगी. लेकिन जनता संकुचित सोच वाली नही है जो हर मुद्दे पे अपनी दूकान का शटर उठा दे और बैठ जाए दलाली की दुकान लगा कर.
अधिकारीयों पर तो गाज गिरेगी ही गिरेगी, कुछ सस्पेंड होंगे कुछ हमेशा के लिए नौकरी से हाथ धो बैठेंगे, लेकिन सवाल ये है कि पढ़ाई लिखाई में अपनी आधी ज़िन्दगी गवां कर सरकारी नौकरी पाने वाले की छुट्टी करने में राजनितज्ञ व्यवस्था को ज्यादा समय नही लगेगा, सवाल यह है कि इन तथाकथित जन प्रतिनिधियों की जवाबदारी कौन तय करेगा.
आर आर पाटिल, विलास्राओ देशमुख, शिवराज पाटिल इनके जैसे और भी चुनावों के बाद फ़िर आ जायेंगे, सामने उदाहरण हैं छगन भुजबल, तेलगी ने नाम लिया तो चले गए, राष्ट्रीय आपदा आई तो चले आए मौका ताड़ कर.