- इंसेफेलाइटिस क शिकार समाज का सबसे गरीब तबका जिसकी हुक्मरानों की नजर में कोई अहमियत नहीं
- पोलियो, टीबी और मलेरिया की तरह इंसेफलाइटिस के लिये कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम नहीं बन पाया।
-34 वर्षों में इंसेफेलाइटिस के इलाज के लिये कोई ठोस रणनीति नहीं बनी।
- गोरखपुर और वाराणसी जैसे शहरों के अलावा पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं।
- उत्तर प्रदेश सरकार इंसेफेलाइटिस की रोकथाम करने के लिये हमेशा केन्द्र सरकार पर निर्भर।
- इंसेफेलाइटिस का कारगर इलाज ढूंढने में केन्द्र सरकार की योजनायें और राष्ट्रीय विषाणु अनुसंधान केन्द्र जैसी संस्थायें भी बुरी तरह से नाकाम
गोरखपुर/लखनऊ । यहां बीमारी से मर रहे मासूमों का इलाज नहीं होता बल्कि सरकारी आंकड़ों का सालाना जश्र मनता है। यहां मरने वाला हर बच्चा केवल एक आंकड़ा है, जो बढ़ गया तो राजनीति और घट गया तो अपनी पीठ थपथपाने का मौका। जी हां बात कर रहे है पूर्वाचल की जहां जैपनीज इंसेफेलाइटिस और एईएस से हर साल हजारों बच्चों की मौत हो जाती है। सूबे का सरकारी स्वास्थ्य महकमा केवल सलाना अंाकड़ों को सजोने में ही व्यस्त रहता है। इस बीमारी का सबसे अफसोसनाक पहलु यह है कि इसका कोई कारगर इलाज नहीं है। किसी बच्चे का इंसेफेलाइटिस का शिाकर होना और मौत से बच जाने का मतलब बाकी जिंदगी का मतलब केवल सांस भर लेना और जिंदा लाश बनकर रह जाना होता है।
पिछले 34 वर्षों में यह बीमारी लगभग 20 हजार से ज्यादा बच्चों की जान ले चुकी है। इस क्षेत्र में काम करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ताओ की मानें तो यह आंकड़ा पिछले 34 वर्षों में 50 हजार का आंकड़ा पर कर चुका है। इस मौत से होन वाले आंकड़ों को पहली बार 1978 रिकार्ड किया गया था। उस वर्ष 1000 से ज्यादा बच्चें की मौत हुई थी। इसके बाद जब 2005 में बच्चों की मौतों की संख्या 1000 के पार पहुंची तो गोरखुपर से लेकर दिल्ली तक कोहराम मच गया। अकेले गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज के आंकड़ो की मानें तो इस साल की शुरूआत से अबतक 125 से ज्यादा बच्चे मौत के मुंह में जा चुके हैं। पिछले साल इंसेफेलाइटिस से मरने वाले बच्चों की संख्या 600 पार कर गई थी। यह तो वे आंकड़े हैं जो सरकार अपने यहां दर्ज करती है। बहुत से गरीब परिवार तो अपने बच्चों को अस्पताल तक नहीं ले जा पाते और उनके बच्चों की मौत सरकारी आंकड़ो में कोई जगह नहीं पाती। उल्लेखनीय है कि क इस बीमारी से पीडि़त होने वाले बच्चों में से लगभग 2 प्रतिशत ही शुरुआती स्थिति में मेडिकल कालेज तक पहुंच पाते हैं और बाकी गांव के डाक्टरों के भरोसे पर रहते है। मानसून शुरू होने को है और इंसेफेलाइटिस का दंश झेल चुके पूर्वांचल के गांव परिवार एक बार फिर सहम उठे हैं कि इस बार यह जापानी बुखार कितनों की बलि लेगा। यह कहना बिलकुल भी गलत नहीं होगा कि इंसेफेलाइटिस पूर्वांचल का शोक है। इंसेफेलाइटिस बुखार एक ऐसी डायन जिसे जेई, जापानी इंसेफेलाइटिस , मस्तिष्क ज्वर भोजपुरी में बड़की या नवकी बीमारी सहित न जाने कितने नामों से जाना जाता है। हालात यह हैं कि पूर्वांचल के लगभग सभी जिले इस बीमारी की जद में हैैं, लेकिन मरीजों को इलाज के लिये या तो गोरखपुर मेडिकल कॉलेज या वाराणसी बीएचयू में इलाज कराने जाना पड़ता है।
समस्या तब और गंभीर हो गई जब सरकार ने इंसेफेलाइटिस के नाम पर जैपनीज इंसेफेलाइटिस के टीककरण पर जोर दिया लेकिन एईएस की उपेक्षा कर दी। हालात यह हैं कि मौजूदा स्थिति में जेई पर तो लगभग पूरा नियंत्रण पाया जा चुका है लेकिन इनसेफालोपैथी सिंड्रोम (एईएस) के प्रकोप बढ़ता गया। इलाज के नाम पर सरकारी व्यवस्था का हाल यह है कि गोरखफर के बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में एक-एक बिस्तर पर तीन-तीन बच्चे इलाज के लिये पड़ रहते हैं। जिस जैपनीज इंसेफेलाइटिस को टीकाकरण के जरिये सरकार रोकने का दावा करती है, कायदे से उसके टीके कोल्ड चेन के जरिये सुरक्षित तरीके से संगहीत किये जाने चाहिये। लेकिन अगर गोरखुपर जिले का हाल देखें तो वहां किसी भी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर न तो कायदे से बिजली की व्यवस्था है और न ही जनरेटर हैं। ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है संग्रहीत टीके बीमारी का प्रकोप शुरू होने के पहले ही बर्बाद हो चुके होते हैं।
हर साल सरकार की तरफ से वायदों का झुनझुना थमा दिया जाता है। इस बार के विधान सभा चुनावों में भी पूर्वांचल के वोटरों ने इंसेफेलाइटिस को बड़ा मुद्दा बनाया था। हर बार की तरह यह वायदे और दावे राजनतिक पाटिंयों के घोषण पत्र तक ही सीमित रह गये। हालात यह है कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को अपनी पार्टी के गिरते प्रदर्शन की चिंता के चलते विधान सभा चुनावों के दौरान पूर्वांचल का 5 बार दौरा करना पड़ा। लेकिन चुनावों के बाद न तो केंद्र की कांग्रेस सरकार ने इस इलाके की सुधि ली है और न ही राज्य सरकार ने। सूबे की राज्य सरकार पूर्वांचल के इस शोक का अंत करने के लिये किसी ठोस कदम की घोषण करने के बजाय पूर्ववर्ती मायावती सरकार की पत्थरों से बनी इमारतों और स्मारकों की गिनती में लगी हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब स्वास्थ्य विभाग घोटालों में डूब चुका हो और सरकार पत्थरों के मायाजाल में उलझी हो तो मासूमों को मौत के मुंह में ले जाने वाली इंसेफेलाइटिस से निजात कौन दिलायेगा?
Reported for Voice of Movement
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