पुण्य प्रसून बाजपेई जी ने अपने ब्लॉग (http://prasunbajpai.itzmyblog.com/2008/09/blog-post_24.html ) पर जो कुछ लिखा है वो शायद अपने न्यूज़ चैनल पर न कह सकें. लेकिन यहाँ पर लिखी टिप्पणियां पढ़ कर और आये दिन तथाकथित समाजसेवियों के उदगार सुनकर ऐसा लगता है कि अलगाववादी अपने मकसद में सफल हो गए हैं.
एन डी टी वी 24/7 पर पिछले दिनो प्रसारित एक रिपोर्ट में ( http://in.youtube.com/watch?v=EwDlZEtjJhk ) सिमी के (अ)भूतपूर्व प्रेजिडेंट शाहिद बद्र फलाही ने कहा कि बोमियान की मूर्तिया गिराना जायज था क्योकि वहा कोई इबादत नही करता था, उन्होंने अपने बाप दादा का भी उदहारण दे डाला. फलाही से क्या कोई पूछने का कष्ट करेगा कि उसने बाबरी मस्जिद में कितनी बार नमाज़ पढ़ी थी और क्या फलाही का बयान ख़ुद बाबरी मस्जिद को गिराना सही साबित नही करता ? अगर तालिबान का बोमियां कि मूर्तियाँ गिराना सही था तो बाबरी मास्जिद को गिराए जाने पे इतनी हाय तौबा क्यों ? सारा आतंकवाद और जिहाद उसी का तथाकथित बदला लेने के लिए ही तो है ? क्या फर्क है मोदी का विरोध करने वालों और मोदी में ?
जिस तरह से प्रशांत भूषण जैसे कानून के जानकार भी टी आर पी के चक्कर में पड़ गए दिखते हैं, और तुंरत फुरत फैक्ट फाइंडीन्ग़ टीम लेकर बाटला हाउस पहुँच गए प्रशांत जी से कोई पूछे कि कितनी बार वे देश भ्रमण पे निकलें हैं बेगुनाह लोगो को झूठे मुक़दमों से बचाने. देश भर के आंकडों पे भी ध्यान देकर प्रशांत भूषण की फैक्ट फाइंडीन्ग़ टीम अगर काम करे तो शायद देश भर के लोग झूठे मुकदमों में फंसने से बच जायेंगे.
तथाकथित मानवाधिकारवादी ब्लास्ट में मारे गए लोगों और उनके परिवार की चीखें तो नही सुन पाते लेकिन अचानक जैसे ही कोई आतंक का आरोपी पकड़ा जाता है , इनकी सेकुलरिज्म की दुकान का शटर उठ जाता है. जब आतंक और आतंकवादी का कोई मज़हब नही, तो पकडे गए आरोपियों का मज़हब अचानक क्यों सामने आ जाता है? क्या कभी इन मानवाधिकार संगठनों ने आतंक के शिकार लोगों से जाकर यह पूछा है कि उन लोगो को सरकारी वायदों के हिसाब से मुआवजा मिला या नही, परिवार के मुखिया या कमाने वाले की मौत के बाद गुजर बसर कैसे हो रही है ?
राजनेता हों, पुलिस हो, जांच एजेन्सी हो, मीडिया हो और खासतौर पे ये मानवाधिकारवादी सभी के लिए आजमगढ़, आबो हवा बदलने के लिए एक जगह बनकर रह गयी है, गोया कि आजमगढ़ एक चिडियाघर और आजमगढ़ के लोग इस चिडियाघर के बाशिंदे. कहाँ थे ये सभी, ज़ब अंडरवर्ल्ड यहाँ के नौजवानों को बहुत लुभावनी नौकरियां दे रहा था ? काश ! तब इनको आजमगढ़ कि याद आई होती. जामिया नगर क्या अभी तो पता नही इस देश में और कितने कश्मीर बनेंगे?
खैर, जो भी हो आतंक और अलगाव फैलाने वालों का मकसद राजनेताओं , पुलिस, जांच एजेंसियों , मीडिया ने और विशेषतौर पर इन मानवाधिकारवादियों ने पूरा कर दिया है. विडम्बना यह है कि इन्ही पर समाज को बांधे रखने कि ज़िम्मेदारी थी और इन्होने ही आतंक के शिकार समाज का ध्रुवीकरण कर दिया है. एक समाज है, जो आतंकवादियों के मुसलमान होने का जख्म झेल रहा है और एक समाज है जो एक विवादित ढांचे के गिरने का दंश झेल रहा है और कीमत चुका रहा है. दोनों कौमों के अलगावादी सही कहते हैं यह देश राम भरोसे या इस देश का अल्लाह हाफिज़...
Saturday, September 27, 2008
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