Thursday, December 18, 2008

अ से अमर .... अ से अंतुले... भइया देश तोड़ने पर क्यों तुले

अपने फेसबुक के मित्र सूची में एक विदेशी महिला मित्र के प्रोफाइल पर देखा पॉलिटिकल व्युस के आगे लिखा था "डोंट वोट, इट एन्करजेस देम" अब तो लगता है शब्दशः सही लिखा था अंतुले हों, अमर सिंह हों, मुख्तार अब्बास नक़वी हों या फ़िर शकील अहमद या तो खुदा हो गए हैं या अपने आपको को इन्होने भारतीय आवाम का खुदा समझ लिया है. इन सबके बड़के भइया इराक में जो सम्मान पा चुके हैं, शायद उसी सम्मान की दरकार इन बेलगाम ज़बानों को यहाँ भी है. इन सठियाये लोगों की ज़बान से अच्छी तो जूते के अन्दर की जुबां है जो कम से कम पैर को काटने से बचाती है.

शायद मानवाधिकार वादियों को बुरा लगे, पर यह बात साम्प्रदायिकता से हट कर एक धर्म की ठेकेदारी ज्यादा है, अगर आतंक का कोई मज़हब नही है इस बात की सफाई में पूरा का पूरा राजनितिक कुनबा क्यों जुट जाता है? दुनिया जानती है की इस देश में रोज़ कितने लोग झूठे मुकदमो में फंसाए जाते हैं, उन बेगुनाह लोगों में भी तो अल्पसंख्यक और शोषित समाज के लोग होते हैं. उनकी आवाज़ कोई बुलंद नही करता, क्यों? पॉलिटिकल टी.आर.पी. नही नसीब होती ऐसे पचडों में. आतंकवाद का मुद्दा ऐसा है की पूरा देश पहचान जाएगा और अल्पसंख्यक समुदाय भी कि उनके धर्म को बचाने वाला नया ठेकेदार आ गया है, बाज़ार में उनकी बोली लगाने...

ज़रदारी ने मुंबई हमलों से ठीक पहले अपनी बीवी के शब्दों को दोहराया था (पहले उनके रहते भी १०% कमीशन खाते थे, अब उनके भाषण चुरा कर पढ़ते हैं) कि "हर हिन्दुस्तानी में एक पाकिस्तानी रहता है और हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी.

मिस्टर 10 परसेंट आपके यहाँ हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी रहे न रहे, हमारे देश के नेताओं में पाकिस्तानी घुसपैठिया ज़रूर घुसा बैठा है. तभी तो हमारी संसद में बैठे घुसपैठिये आपके यहाँ पल रहे जानवरों को कभी कंधार पिकनिक मानाने के लिए ले जाते हैं और उसके एवज़ में हम भारतीयों को बलि का बकरा बनाते हैं. कभी संसद पर हमला हो जाए तो जेल में आतंकवादियों बैठाकर मुर्ग मुसल्लम खिलवाते हैं यह मुर्ग मुसल्लम का पैसा भी भारतीय जनता अपने खून पसीने के कमाई पर लगने वाले टैक्स से भरती है. हमारे रन बाँकुरे क्या कर सकते हैं यह दुनिया को मालूम है, लेकिन ये हिन्दुस्तानी पाकिस्तानी उन्हें भी नामर्द बनाकर रखते हैं.

हमारे यहाँ के हिन्दुस्तानी पाकिस्तानियों ने सैनिकों के कपड़े और ताबूतों तक सौदा कर लिया... हम दुनिया कि बराबरी करें न करें लेकिन आपके हिंद्स्तानी पाकिस्तानियों कि वजह से (अफगानिस्तान->पाकिस्तान-> ..... ->बांग्लादेश ये बीच कि गायब कड़ी हम ही तो हैं) बहुत जल्द हम सब बराबरी में खड़े होंगे.

समाज सेवकों और राजनीतिज्ञों को लगता है कि देश के पॉलिटिकल सिस्टम को तोड़ने कि साजिश चल रही है. शायद, ये वही समाज सेवक और शास्त्री लोग हैं, जो अब तक इसी भारतीय आवाम को इसलिए गाली देते रहे कि ये आवाम वोट नही देने निकलती .. इस बार जनता भी निकली और इन नेताओं के होश भी निकले. अपने लिए भस्मासुरी स्थिति इन्होने ख़ुद बनाई और अब इसका दोष भी ये जनता के मत्थे फोड़ना चाहते हैं.

मुंबई हमला हुआ, दुनिया में पहली बार एक फिदायीन हमले के दौरान जिंदा आतंकवादी पुलिस के हत्थे चढ़ गया... कितनो का खून बहा एक जिंदा सबूत पकड़ने के लिए. अब तक तो गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाना हुआ कि "अंकल सैम अंकल सैम, पाकिस्तान ने हमारे यहाँ बम फोडे ... आज जब अंकल सैम के यहाँ से राइस चाची और सैम अंकल के दोस्त चचा गार्डन ब्राउन पाकिस्तान को आँख दिखा कर जाते हैं तो अपने किए पानी फेरने के लिए अंतुले जी के अन्दर अमर सिंह कि आत्मा प्रविष्ट हो जाती है.

अब्दुर्र रहमान अंतुले, शकील अहमद और मुख्तार अब्बास नक़वी तीनो के बयान साथ रख देखे जाएँ तो इशारा अपने आप ही कहीं और चला जाता है.... अगर आप तीनो के नाम भी एक साथ लिए जाएँ तो पूरी कॉम पर ऊँगली उठ जायेगी. लेकिन जनता संकुचित सोच वाली नही है जो हर मुद्दे पे अपनी दुकान का शटर उठा दे और बैठ जाए दलाली की दुकान लगा कर.

अधिकारीयों पर तो गाज गिरेगी ही गिरेगी, कुछ सस्पेंड होंगे कुछ हमेशा के लिए नौकरी से हाथ धो बैठेंगे, लेकिन सवाल ये है कि पढ़ाई लिखाई में अपनी आधी ज़िन्दगी गवां कर सरकारी नौकरी पाने वाले की छुट्टी करने में राजनितज्ञ व्यवस्था को ज्यादा समय नही लगेगा, सवाल यह है कि इन तथाकथित जन प्रतिनिधियों की जवाबदारी कौन तय करेगा.

आर आर पाटिल, विलास्राओ देशमुख, शिवराज पाटिल इनके जैसे और भी चुनावों के बाद फ़िर आ जायेंगे, सामने उदाहरण हैं छगन भुजबल, तेलगी ने नाम लिया तो चले गए, राष्ट्रीय आपदा आई तो चले आए मौका ताड़ कर.

Wednesday, December 17, 2008

अ से अमर .... अ से अंतुले... भइया देश तोड़ने पर क्यों तुले

अपने फेसबुक के मित्र सूची में एक विदेशी महिला मित्र के प्रोफाइल पर देखा पॉलिटिकल व्युस के आगे लिखा था "डोंट वोट, इट एन्करजेस देम" अब तो लगता है शब्दशः सही लिखा था अंतुले हों, अमर सिंह हों, मुख्तार अब्बास नक़वी हों या फ़िर शकील अहमद या तो खुदा हो गए हैं या अपने आपको को इन्होने भारतीय आवाम का खुदा समझ लिया है. इन सबके बड़के भइया इराक में जो सम्मान पा चुके हैं, शायद उसी सम्मान की दरकार इन बेलगाम ज़बानों को यहाँ भी है. इन सठियाये लोगों की ज़बान से अच्छी तो जूते के अन्दर की जुबां है जो कम से कम पैर को काटने से बचाती है.
शायद मानवाधिकार वादियों को बुरा लगे, पर यह बात साम्प्रदायिकता से हट कर एक धर्म की ठेकेदारी ज्यादा है, अगर आतंक का कोई मज़हब नही है इस बात की सफाई में पूरा का पूरा राजनितिक कुनबा क्यों जुट जाता है? दुनिया जानती है की इस देश में रोज़ कितने लोग झूठे मुकदमो में फंसाए जाते हैं, उन बेगुनाह लोगों में भी तो अल्पसंख्यक और शोषित समाज के लोग होते हैं. उनकी आवाज़ कोई बुलंद नही करता, क्यों? पॉलिटिकल टी.आर.पी. नही नसीब होती ऐसे पचडों में. आतंकवाद का मुद्दा ऐसा है की पूरा देश पहचान जाएगा और अल्पसंख्यक समुदाय भी कि उनके धर्म को बचाने वाला नया ठेकेदार आ गया है, बाज़ार में उनकी बोली लगाने...

ज़रदारी ने मुंबई हमलों से ठीक पहले अपनी बीवी के शब्दों को दोहराया था (पहले उनके रहते भी १०% कमीशन खाते थे, अब उनके भाषण चुरा कर पढ़ते हैं) कि "हर हिन्दुस्तानी में एक पाकिस्तानी रहता है और हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी.

मिस्टर 10 परसेंट आपके यहाँ हर पाकिस्तानी में एक हिन्दुस्तानी रहे न रहे, हमारे देश के नेताओं में पाकिस्तानी घुसपैठिया ज़रूर घुसा बैठा है. तभी तो हमारी संसद में बैठे घुसपैठिये आपके यहाँ पल रहे जानवरों को कभी कंधार पिकनिक मानाने के लिए ले जाते हैं और उसके एवज़ में हम भारतीयों को बलि का बकरा बनाते हैं. कभी संसद पर हमला हो जाए तो जेल में आतंकवादियों बैठाकर मुर्ग मुसल्लम खिलवाते हैं यह मुर्ग मुसल्लम का पैसा भी भारतीय जनता अपने खून पसीने के कमाई पर लगने वाले टैक्स से भरती है. हमारे रन बाँकुरे क्या कर सकते हैं यह दुनिया को मालूम है, लेकिन ये हिन्दुस्तानी पाकिस्तानी उन्हें भी नामर्द बनाकर रखते हैं.

हमारे यहाँ के हिन्दुस्तानी पाकिस्तानियों ने सैनिकों के कपड़े और ताबूतों तक सौदा कर लिया... हम दुनिया कि बराबरी करें न करें लेकिन आपके हिंद्स्तानी पाकिस्तानियों कि वजह से (अफगानिस्तान->पाकिस्तान-> ..... ->बांग्लादेश ये बीच कि गायब कड़ी हम ही तो हैं) बहुत जल्द हम सब बराबरी में खड़े होंगे.
समाज सेवकों और राजनीतिज्ञों को लगता है कि देश के पॉलिटिकल सिस्टम को तोड़ने कि साजिश चल रही है. शायद, ये वही समाज सेवक और शास्त्री लोग हैं, जो अब तक इसी भारतीय आवाम को इसलिए गाली देते रहे कि ये आवाम वोट नही देने निकलती .. इस बार जनता भी निकली और इन नेताओं के होश भी निकले. अपने लिए भस्मासुरी स्थिति इन्होने ख़ुद बनाई और अब इसका दोष भी ये जनता के मत्थे फोड़ना चाहते हैं.
मुंबई हमला हुआ, दुनिया में पहली बार एक फिदायीन हमले के दौरान जिंदा आतंकवादी पुलिस के हत्थे चढ़ गया... कितनो का खून बहा एक जिंदा सबूत पकड़ने के लिए. अब तक तो गला फाड़ फाड़ कर चिल्लान हुआ कि "अंकल सैम अंकल सैम, पाकिस्तान ने हमारे यहाँ बम फोडे ... आज जब अंकल सैम के यहाँ से राइस चाची और सैम अंकल के दोस्त चचा गार्डन ब्राउन पाकिस्तान को आँख दिखा कर जाते हैं तो अपने किए पानी फेरने के लिए अंतुले जी के अन्दर अमर सिंह कि आत्मा प्रविष्ट हो जाती है.
अब्दुर्र रहमान अंतुले, शकील अहमद और मुख्तार अब्बास नक़वी तीनो के बयान साथ रख देखे जाएँ तो इशारा अपने आप ही कहीं और चला जाता है.... अगर आप तीनो के नाम भी एक साथ लिए जाएँ तो पूरी कॉम पर ऊँगली उठ जायेगी. लेकिन जनता संकुचित सोच वाली नही है जो हर मुद्दे पे अपनी दूकान का शटर उठा दे और बैठ जाए दलाली की दुकान लगा कर.
अधिकारीयों पर तो गाज गिरेगी ही गिरेगी, कुछ सस्पेंड होंगे कुछ हमेशा के लिए नौकरी से हाथ धो बैठेंगे, लेकिन सवाल ये है कि पढ़ाई लिखाई में अपनी आधी ज़िन्दगी गवां कर सरकारी नौकरी पाने वाले की छुट्टी करने में राजनितज्ञ व्यवस्था को ज्यादा समय नही लगेगा, सवाल यह है कि इन तथाकथित जन प्रतिनिधियों की जवाबदारी कौन तय करेगा.
आर आर पाटिल, विलास्राओ देशमुख, शिवराज पाटिल इनके जैसे और भी चुनावों के बाद फ़िर आ जायेंगे, सामने उदाहरण हैं छगन भुजबल, तेलगी ने नाम लिया तो चले गए, राष्ट्रीय आपदा आई तो चले आए मौका ताड़ कर.

Monday, November 10, 2008

साधु,सिपाही और हिंदू-मुस्लिम आतंकवाद में कहां है पुलिस, राजनेता मीडिया... और….. कहाँ है राष्ट्र?

साध्वी और सैन्य अफसर आतंकवादी हैं या नही यह सच तो देश ज़रूर देखेगा और कई अनसुलझे सत्यों की तरह इस सत्य को जानने का अनंत इंतज़ार भी रहेगा. शायद यह वही जांच एजेन्सी है जिसने तेलगी द्वारा किए गए नाम के खुलासों को नज़रंदाज़ कर दिया, क्योंकि वे नाम इस राष्ट्र के अन्दर के "महा" राष्ट्र के राष्ट्रभक्त, राजनीति के मराठा सेनापतियों के थे. क्या मीडिया भी भूल गया तेलगी के नार्को टेस्ट की फुटेज... या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की लाइब्रेरी सांप्रदायिक सद्भाव की आग में जलकर ख़ाक हो गई है?

यदि श्रीकांत पुरोहित के ख़िलाफ़ कोई आरोप प्रमाणित नही होता, तब इस देश के सैन्यबल और खुफिया जांच अधिकारियों के मनोबल पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इस प्रश्न का आशय यह बिल्कुल नही कि संदिग्ध सैन्य अधिकारियों कि कोई जांच ना हो. सैन्य अधिकारियों के ख़िलाफ़ जांच पहले भी होती रही है, लेकिन राजनितिक आकाओं को संतुष्ट करने का यह तरीका विध्वंशकारी है...

यह उसी प्रदेश कि पुलिस है जो अपने सीमा क्षेत्र में तो अंडरवर्ल्ड के अघोषित पे- रोल पर काम करती हैं और राष्ट्रीय राजधानी में जाकर अपने आका के ख़िलाफ़ चलने वाली मुहीम को नाकाम करने के लिए राव तुलाराम बाग़ में "विक्की मल्होत्रा" को गिरफ्तार करती है... आप भी समझ गए होंगे कि किसके साथ था "विक्की"? यह उसी "महा" राष्ट्र कि पुलिस है जो अपने आका के दुबई से आए फ़ोन पर "शूटआउट एट लोखंडवाला" को अंजाम देती है.

अगर इस टिपण्णी को हल्का करना हो तो एक गंभीर बात भी कह सकता हूँ कि यह वही जांच एजेंसियाँ हैं जो "बेगुनाह" लोगों का एनकाउंटर कर रही थीं और छाती ठोंककर प्रेस कांफ्रेंस कर रहीं थीं... मालेगांव मामले में सिर्फ़ "जांच" चलने और बार- बार ब्रेन मैपिंग की ही बात हो रही है... यदि "हिंदूवादी" लोगों का दोहरा मापदंड सामने आया है तो निहित स्वार्थों के चलते पूर्वाग्रह से ग्रसित "मानवाधिकारवादियों" का दोहरा चरित्र भी सामने उजागर है...

साधु,सिपाही और हिंदू-मुस्लिम आतंकवाद में कहां है पुलिस, राजनेता मीडिया... और….. कहाँ है राष्ट्र?

Wednesday, October 15, 2008

पलट तेरा ध्यान किधर है... सांप्रदायिक सदभाव की दुकान इधर है....

पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के ब्लॉग पर लिखे लेख भले ही न प्रेरित करते हों कुछ लिखने को, किंतु वहां लिखी टिप्पणियां आपको ज़रूर उद्वेलित कर देंगी. हर बार किसी न किसी फंतासी लेखक की दुकान इस हाट में खुलती नज़र आ जाती है. इस बार तो एक फंतासी लेखक ने मीडिया क्लिपिंग्स और कांसपिरेसी थेओरी की बाढ़ ही ला दी है. अब सवाल ये उठता है कि जब दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अलग अलग अख़बारों ने ही इस मुठभेड़ का समय अलग अलग बताया हो, तो आप इन अख़बारों में लिखे फंतासी लेखकों के लेखों पर कितना भरोसा कर सकते हैं?

ज्यादातर मानवाधिकार सम्मेलनों में जाने वाले इन बुद्धजीवीयों के लिए यह मौका हवा पानी बदलने का होता है, ज़रा पूछे कोई इनसे, मानवाधिकार और सांप्रदायिक सदभाव की बातें यह आम आदमी को सुनाने हवाई जहाज़ या रेल के ए. सी. डब्बों में या ए. सी. टैक्सीयों में जाते हैं, उसका खर्च कौन उठाता है? प्रश्न आपकी मंशा पर नही मानवाधिकारवादियों, प्रश्न आपके द्वारा प्रयोग किए जा रहे साधन और उन साधनों को उपलब्ध कराने वालों पर है? तो क्या ऐसे साधनों का उपभोग करने के पश्चात् आपके द्वारा कही गई बातों का कोई मतलब रह जाता है?

अच्छा लगा जानकर कि पी. यु. सी. एल. और पी. यु. डी. आर. का लंगडा, काना और बहरा साम्प्रादायिक सदभाव , पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के ब्लॉग पर भी अपना शो रूम खोलने में सफल हो गया. पहले तो लगा था कि ये सिर्फ़ "बाटला हाउस के इर्द-गिर्द" ही अपनी दुकान चलाएंगे. काश! ये इतनी प्रेस क्लिपिंग्स इस तथ्य की भी एक्त्रतित कर पाते कि कितने बम धमाकों ने इस देश को लहू लुहान किया है?

ए. सी. कमरों में बैठकर कोई भी फैक्ट फाईनडिंग टीम एक अच्छी कांसपिरेसी थेओरी लिख सकती है, वो भी खास तौर से जब अल्प संख्यकों और दलितों का मसीहा बनकर फोरेन फंडिंग लानी हो तो.

मौलिक एलिस इन वंडरलैंड की तरह इन्हे भी फंतासी लिखने में मज़ा आने लगा है, खुदा न खास्ता इन फंतासी लेखकों का कोई अपना मारा जाए इन बम धमाकों में .... क्या ये तब भी बैठकर इस तरह की फंतासी कहानियाँ लिखेंगे और प्रेस क्लिपिंग्स एकत्र करेंगे?

धमाकों में अल्पसंख्यक भी मरे और बहुसंख्यक भी, लेकिन मरहम सिर्फ़ एक समुदाय के ऊपर लगाने की मुहीम क्यों? एनकाउंटर में मरने वाला हर शख्श हिन्दुस्तानी था, एक ने देश के लिए जान दी और दूसरे ने देश से बगावत करके जान दी. बेहतर होता, ये मानवाधिकारवादी, युवाओं को इस राष्ट्र से बगावत करने के लिए उकसाने वाले को बेनकाब करते.

अगर इन तथ्यों को कोई बहुसंख्यक सांप्रदायिक मानसिकता का मानता है, तो कोई परहेज़ नही, कम से कम यहाँ मुखौटा लगाकर लंगडे, काने और बहरे साम्प्रादायिक सदभाव की दुकान तो नही लग रही. जिस दुकान पर सामने तो अपनी खुजली मिटाने के लिए अल्पसंख्यकों के नाम का मरहम बिकता हो और पिछले दरवाज़े से सांप्रदायिक और फासिस्ट ताकतों को ध्रुवीकरण का टानिक दिया जाता हो.

Saturday, September 27, 2008

अल्लाह हाफिज़.........राम भरोसे

पुण्य प्रसून बाजपेई जी ने अपने ब्लॉग (http://prasunbajpai.itzmyblog.com/2008/09/blog-post_24.html ) पर जो कुछ लिखा है वो शायद अपने न्यूज़ चैनल पर न कह सकें. लेकिन यहाँ पर लिखी टिप्पणियां पढ़ कर और आये दिन तथाकथित समाजसेवियों के उदगार सुनकर ऐसा लगता है कि अलगाववादी अपने मकसद में सफल हो गए हैं.

एन डी टी वी 24/7 पर पिछले दिनो प्रसारित एक रिपोर्ट में ( http://in.youtube.com/watch?v=EwDlZEtjJhk ) सिमी के (अ)भूतपूर्व प्रेजिडेंट शाहिद बद्र फलाही ने कहा कि बोमियान की मूर्तिया गिराना जायज था क्योकि वहा कोई इबादत नही करता था, उन्होंने अपने बाप दादा का भी उदहारण दे डाला. फलाही से क्या कोई पूछने का कष्ट करेगा कि उसने बाबरी मस्जिद में कितनी बार नमाज़ पढ़ी थी और क्या फलाही का बयान ख़ुद बाबरी मस्जिद को गिराना सही साबित नही करता ? अगर तालिबान का बोमियां कि मूर्तियाँ गिराना सही था तो बाबरी मास्जिद को गिराए जाने पे इतनी हाय तौबा क्यों ? सारा आतंकवाद और जिहाद उसी का तथाकथित बदला लेने के लिए ही तो है ? क्या फर्क है मोदी का विरोध करने वालों और मोदी में ?

जिस तरह से प्रशांत भूषण जैसे कानून के जानकार भी टी आर पी के चक्कर में पड़ गए दिखते हैं, और तुंरत फुरत फैक्ट फाइंडीन्ग़ टीम लेकर बाटला हाउस पहुँच गए प्रशांत जी से कोई पूछे कि कितनी बार वे देश भ्रमण पे निकलें हैं बेगुनाह लोगो को झूठे मुक़दमों से बचाने. देश भर के आंकडों पे भी ध्यान देकर प्रशांत भूषण की फैक्ट फाइंडीन्ग़ टीम अगर काम करे तो शायद देश भर के लोग झूठे मुकदमों में फंसने से बच जायेंगे.

तथाकथित मानवाधिकारवादी ब्लास्ट में मारे गए लोगों और उनके परिवार की चीखें तो नही सुन पाते लेकिन अचानक जैसे ही कोई आतंक का आरोपी पकड़ा जाता है , इनकी सेकुलरिज्म की दुकान का शटर उठ जाता है. जब आतंक और आतंकवादी का कोई मज़हब नही, तो पकडे गए आरोपियों का मज़हब अचानक क्यों सामने आ जाता है? क्या कभी इन मानवाधिकार संगठनों ने आतंक के शिकार लोगों से जाकर यह पूछा है कि उन लोगो को सरकारी वायदों के हिसाब से मुआवजा मिला या नही, परिवार के मुखिया या कमाने वाले की मौत के बाद गुजर बसर कैसे हो रही है ?

राजनेता हों, पुलिस हो, जांच एजेन्सी हो, मीडिया हो और खासतौर पे ये मानवाधिकारवादी सभी के लिए आजमगढ़, आबो हवा बदलने के लिए एक जगह बनकर रह गयी है, गोया कि आजमगढ़ एक चिडियाघर और आजमगढ़ के लोग इस चिडियाघर के बाशिंदे. कहाँ थे ये सभी, ज़ब अंडरवर्ल्ड यहाँ के नौजवानों को बहुत लुभावनी नौकरियां दे रहा था ? काश ! तब इनको आजमगढ़ कि याद आई होती. जामिया नगर क्या अभी तो पता नही इस देश में और कितने कश्मीर बनेंगे?

खैर, जो भी हो आतंक और अलगाव फैलाने वालों का मकसद राजनेताओं , पुलिस, जांच एजेंसियों , मीडिया ने और विशेषतौर पर इन मानवाधिकारवादियों ने पूरा कर दिया है. विडम्बना यह है कि इन्ही पर समाज को बांधे रखने कि ज़िम्मेदारी थी और इन्होने ही आतंक के शिकार समाज का ध्रुवीकरण कर दिया है. एक समाज है, जो आतंकवादियों के मुसलमान होने का जख्म झेल रहा है और एक समाज है जो एक विवादित ढांचे के गिरने का दंश झेल रहा है और कीमत चुका रहा है. दोनों कौमों के अलगावादी सही कहते हैं यह देश राम भरोसे या इस देश का अल्लाह हाफिज़...